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कच्चे पगडंडियों व संकरे ग्रामीण मार्ग पर गतिमान ज्योतिचरण

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सारंबा से 11 कि.मी. का विहार, ढोरवि में पधारे महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण 5 कि.मी. का सान्ध्यकालीन विहार, मलकापुर पांग्रा में हुआ रात्रिकालीन प्रवास

मधुहीर राजस्थान

ढोरवी, बुलढाणा (महाराष्ट्र) रमेश भट्ट। मई का महीना, तपता सूर्य, तवे के समान धधकती धरती, निरंतर बढ़ता तापमान, आम जन-जीवन बेहाल। ऐसे प्रतिकूल परिस्थिति में भी जनोद्धार के लिए जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी की परिव्राजकता अखण्ड रूप में जारी है। इतना ही नहीं, महातपस्वी जन भावनाओं को ध्यान में रखते हुए प्रायः प्रतिदिन प्रातः और सान्ध्यकालीन समय में भी विहार कर रहे हैं। महातपस्वी की ऐसी कठोर श्रम साधना श्रद्धालुओं को और अधिक श्रद्धानत बना रही है। जहां लोग सूर्य के आसमान में चढ़ते ही घरों से निकलने का नाम नहीं ले रहे हैं, वहीं शांतिदूत आचार्यश्री समता भाव से गतिमान रहते हैं। इतना ही नहीं, श्रद्धालुओं को दर्शन देना, आशीष देना, विहार के उपरान्त व्याख्यान आदि देने के क्रम में कोई परिवर्तन भी दिखाई नहीं देता।

ऐसे महामानव, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी सोमवार को प्रातःकाल की मंगल बेला में सारंबा गांव से गतिमान हुए। आसमान में छाए बादलों के कारण आज तपन थोड़ी कम थी। मार्ग मंे अनेक स्थानों पर खड़े श्रद्धालुओं ग्रामीणों पर आशीष वृष्टि करते हुए आचार्यश्री कच्चे और संकरे रास्ते गंतव्य की ओर गतिमान थे। राष्ट्रसंत आचार्यश्री की धवल सेना ग्रामीण पगडंडियों पर मानों श्वेत जलधारा के समान प्रतीत हो रही थी, जो मानवीय हृदय को आध्यात्मिक अभिसिंचन प्रदान करते हुए गतिमान थी। राजमार्ग को छोड़ संकरे ग्रामीण मार्ग पर गतिमान आचार्यश्री लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर ढोरवि गांव में स्थित जिला पंचायत मराठी प्राथमिक शाला में पधारे। आज के विहार के दौरान सूर्य बादलों से ढंका रहा, इस कारण थोड़ी अनुकूलता भी महसूस की गई।

प्राथमिकशाला में ही आयोजित मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित ग्रामीण जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आगमों में पुनरजन्म की बात बताई गई है। प्रश्न हो सकता है कि आत्मा का पुनरजन्म क्यों होता है? आदमी तो मोक्ष जाने की बात भी करता है तो जन्म-मरण से मुक्ति कैसे हुआ जा सकता है। जन्म-मरण से मुक्त होना है तो पहले जन्म-मृत्यु होने के कारणों को जानने का प्रयास करना चाहिए। यदि कारण को नष्ट कर दिया जाए तो फिर आदमी इससे मुक्त हो सकता है। इसका कारण बताया गया- क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चार कषाय। ये कषाय जन्म-मरण की प्रक्रिया को सिंचन देने वाले होते हैं। यदि इस सिंचन को ही रोक दिया जाए तो फिर जन्म-मरण की परंपरा को नष्ट किया जा सकता है। जैन दर्शन में पुनरजन्म की बात बताई गई है। आदमी को अपने कर्म का फल भोगना होता है। आदमी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल प्राप्त होता है। कर्मयुक्त आत्मा ही जन्म-मरण के चक्र में फंसी रहती है। इसलिए आदमी को जितना संभव हो सके आदमी को कषायों से मुक्त रहने और पाप कार्यों से बचने का प्रयास करे। संवर-निर्जरा की साधना से अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयास हो।

कषायों को जितना क्षीण कर सकें, जितना पतला हो सके, उसे करने का प्रयास करना चाहिए। मन में शांति हो। लोभ, लालच, लालसा कम हो। अहंकार का भाव भी कम हो। चारों कषायों से बचते हुए जन्म-मरण सेे मुक्त होने की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करें। महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी सान्ध्यकालीन विहार के लिए गतिमान हुए। पीठ की ओर स्थित सूर्य की किरणें धीरे-धीरे कम होती जा रहीं थी। लगभग पांच किलोमीटर का विहार कर युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी मलकापुर पांग्रा में स्थित अरुणभाऊ मखमले महाविद्यालय में पधारे। इस महाविद्यालय में आचार्यश्री का रात्रिकालीन प्रवास हुआ।

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