अशोक भाटिया,
(वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, एवं टिप्पणीकार)
लोकसभा चुनाव 2024 के लिए जनता का फैसला अब सामने आ चुका है। मतगणना के दो दिन बाद, तस्वीर और ज्यादा साफ हो गई है। 543 सदस्यीय लोकसभा में 292 सीटें हासिल करने के बाद भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने जीत हासिल की है। इंडिया गठबंधन ने सभी एग्जिट पोल और भविष्यवाणियों को धता बताते हुए 234 सीटें हासिल की हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों से सबसे बड़ी बात यह रही है कि भाजपा की सीटों की संख्या में गिरावट आई है। 2019 के चुनाव में 303 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा इस बार 240 सीटों पर सिमट गई। यह भाजपा के लिए एक कठिन राजनीतिक तस्वीर पेश करता है। नई सरकार अपने गठबंधन सहयोगियों खासकर तेलुगु देशम पार्टी- टीडीपी और जनता दल (यूनाइटेड) पर बहुत अधिक निर्भर होगी। नए जनादेश के कारण एक दशक के एकल-दल के प्रभुत्व का अंत होगा और केंद्र में गठबंधन सरकार की वापसी होगी। लेकिन भाजपा के लिए क्या गलत हुआ? वे कौन से कारक हैं जिनकी वजह से इसकी सीटें कम हुईं, कुछ तमाम अध्ययन और मनन के बाद कुछ कारण सामने आ रहे हैं।
इनमें बड़े राज्यों में खराब प्रदर्शन, क्षेत्रीय पार्टियों का मजबूत होना आदि वजह हैं। भाजपा के खराब प्रदर्शन का एक सबसे बड़ा कारण उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसका प्रदर्शन है। दरअसल, भारतीय राजनीति में यह कहावत सच साबित हो रही है कि ‘दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है।उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अपने दम पर 33 और अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ 36 सीटें जीती हैं। 2014 के चुनाव में यूपी से भाजपा ने 71 सांसद लोकसभा में भेजे थे और 2019 में उसने अपने दम पर 62 और अपने सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) के साथ दो सीटें जीतीं। कई विश्लेषकों ने पाया है कि अखिलेश यादव का पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) फॉर्मूला इसके बेहतर प्रदर्शन और भाजपा के खराब प्रदर्शन का एक कारण है। इसके अलावा, इस बार टिकट वितरण में भी बदलाव किया गया है।बड़े राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि इस बार टिकट वितरण कुछ सर्वेक्षण एजेंसियों और कुछ खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट पर आधारित था। आलाकमान ने टिकट के दावेदारों के बारे में अपने खुद के मानदंड, पसंद और नापसंद तय कर लिए। जमीनी हकीकत पर एक शब्द भी नहीं सुना। उत्तर प्रदेश में भाजपा को सबसे बड़ा झटका फैजाबाद सीट पर लगा।
अयोध्या फैजाबाद सीट में ही आती है और यहां इस साल 22 जनवरी को बड़ी ही धूमधाम से रामलला की स्थापना और राम मंदिर का उद्घाटन किया गया। कयास ये लगाए जा रहे थे कि उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में केवल राम मंदिर ही भाजपा को रिकॉर्ड सीटों से जीत दिला देगा। लेकिन यहां तो खुद अयोध्या की सीट के लाले पड़ गए। हरियाणा की बात करें तो यहां भी भाजपा को बड़ा झटका लगा है। हरियाणा में लगातार 2 बार भाजपा सभी 10 सीटों पर जीत रही थी, लेकिन इस बार आधी सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई। कांग्रेस 5 सीटों पर कब्जा करने में सफल रही। हरियाणा में लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने यहां सत्ता परिवर्तन किया था। साथ ही यहां चल रहा जननायक जनता पार्टी- जजपा गठजोड़ भी तोड़ दिया।
25 सीटों वाले राजस्थान ने भी भाजपा को चोट पहुंचाई है। यहां भाजपा को 14, कांग्रेस को 8, सीपीआई-एम, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी- आरएलटीपी और भारत आदिवासी पार्टी ने एक-एक सीट जीती हैं। यहां भी क्षेत्रीय दलों ने भाजपा की नींव खोखली करने का काम किया है। बताते है कि राजपूतों की बेरुखी भी भाजपा को भारी पड़ गई । न्यूज़ 24 चैनल के अनुसार भाजपा का जाट प्रेम और राजपूतों से दूरी भाजपा को ले डूबी ।7 में से केवल एक जाट जीता जबकि तीनों राजपूत उम्मीदवार विजयी रहे । भाजपा द्वारा विधानसभा की गलती दोहरे गई । हालाँकि गुजरात , ऊतार्प्रदेश औए राजस्थान के कुछ हिस्सों में राजपूतों द्वारा EWS , इतिहास व कुछ अन्य मुद्दों को लेकर भाजपा का खासा विरोध रहा । मंत्रिमंडल विस्तार में राजपूतों की संख्या बढ़ाने पर पुनर्विचार।पार्टी को डेमेज कंट्रोल की कवायत करनी चाहिए । उत्तर प्रदेश के बाद भाजपा को सबसे बड़ा झटका महाराष्ट्र में लगा है। यहां भाजपा ने 48 में से 9 सीटें जीतीं। उसके सहयोगी दल शिवसेना (शिंदे गुट) ने 7 और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी- एनसीपी ने एक सीट जीती। इससे राज्य में एनडीए की सीटों की संख्या 17 हो गई। इसकी तुलना 2019 से करें, महाराष्ट्र में भाजपा ने अपने दम पर 23 सीटें जीती थीं। इससे पता चलता है कि 2022 में शिवसेना और 2023 में एनसीपी का अलग होना मतदाताओं को रास नहीं आया है। राजनीतिक पंडितों का यह भी तर्क है कि शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मराठा आंदोलन ने भी नतीजों को प्रभावित किया है।
भाजपा के खराब प्रदर्शन के पीछे एक और कारण यह हो सकता है कि पार्टी देश में बेरोजगारी के मुद्दे को हल करने में असमर्थ रही है। भाजपा के घोषणापत्र में महंगाई और बेरोजगारी का जिक्र तक नहीं था।हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि किसानों की दुर्दशा, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था और महंगाई ऐसे प्रमुख मुद्दे हैं, जिन्हें सत्तारूढ़ भाजपा हल करने में विफल रही है।इसके अलावा, कई पंडितों का मानना है कि भाजपा ने अल्पकालिक अग्निपथ योजना को लेकर लोगों के गुस्से को ध्यान में नहीं रखा। कई ग्रामीण युवाओं ने सैन्य भर्ती योजना को लेकर अपना असंतोष व्यक्त किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दम पर भाजपा के तेजी से बढ़ते कद ने क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय राजनीति के हाशिये पर धकेल दिया था। हालांकि, 2024 के चुनाव ने फिर से स्थिति बदल दी है।उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीतकर भाजपा को बड़ा झटका दिया है। इसी तरह, एग्जिट पोल के पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस- टीएमसी ने पश्चिम बंगाल में 29 सीटें हासिल की हैं, जिससे भाजपा बहुत पीछे रह गई है। इससे टीएमसी, कांग्रेस और सपा के बाद विपक्षी दल भारत में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है।इसी तरह, तेलगु देशम पार्टी- टीडीपी और जनता दल (यू) ने भी बड़ा प्रदर्शन किया है। चंद्रबाबू नायडू की अगुवाई वाली टीडीपी ने कुल 16 सीटें हासिल की हैं, जबकि नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जेडी(यू) ने 12 सीटें जीती हैं।
चुनाव से पहले, भाजपा ने अपने नेताओं की अनदेखी करके कांग्रेस और अन्य दलों से पार्टी में आए नेताओं को टिकट दिया। हालांकि, उन्होंने वैसा प्रदर्शन नहीं किया जैसा पार्टी चाहती थी। हिमाचल और पंजाब में कांग्रेस से भाजपा में आए कई दलबदलू लड़खड़ा गए।हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस से भाजपा में आए छह दलबदलुओं में से चार हार गए। पंजाब में कांग्रेस से भाजपा में आए रवनीत बिट्टू और आम आदमी पार्टी- आप से भाजपा में आए सुशील रिंकू चुनाव हार गए। इससे साफ पता चलता है कि मतदाता दलबदलुओं से नाखुश थे और उन्होंने उन्हें बाहर कर दिया। कहा जा रहा है कि दलबदलुओं के कारण भाजपा का नारा ‘अब की बार, 400 पार’ उल्टा पड़ गया। यह भी चर्चा है कि इस बार भाजपा के दिग्गज नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- आरएसएस के स्वयंसेवकों और पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं की अनदेखी की। जानकार कहते हैं कि 2014 और 2019 के चुनाव में आरएसएस ने जिस प्रकार जमीन पर उतरकर काम किया, इस बार ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। अब एक चर्चा यह चल रही है कि लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पार्टी पर पकड़ बढ़ जाएगी। सच्चाई यह है कि संघ और भाजपा के संबंध में किसी तरह का बदलाव आने नहीं जा रहा है। संघ खुद को पार्टी के रोजाना के कामकाज से दूर रखने की कोशिश करता है। संघ के अगले साल 100 साल पूरे होने जा रहे हैं।
ऐसे में उसका फोकस अपने आधार पर व्यापक बनाने पर है। संघ के कार्यकर्ता भाजपा में राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर संगठन के सचिव या संयुक्त सचिव की भूमिका निभा रहे हैं। ये कार्यकर्ता फुल टाइम वर्कर हैं जिन्हें प्रचारक कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र खुद एक प्रचारक रह चुके हैं। वह भाजपा में संगठन के सचिव का पद भी संभाल चुके हैं। भाजपा और संघ के बीच पावर को लेकर किसी तरह का टकराव या खींचतान नहीं रही है। इसकी वजह यह है कि दोनों अलग-अलग क्षेत्र में काम करते हैं। संघ का नेतृत्व यह बात अच्छी तरह से समझता है कि राजनीति की कुछ अपनी मजबूरियां हैं और भाजपा को इन मजबूरियों से बाहर निकलने का रास्ता खुद तलाशना है। अगर कोई बात भाजपा नेतृत्व तक पहुंचानी है तो उसे संगठन के सचिवों के जरिए पहुंचाया जाता है। संघ न तो शासन के कामकाज में हस्तक्षेप करता है और न ही भाजपा की राजनीतिक गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी होती है। उसकी भूमिक विचारधारा के स्तर पर एक मार्गदर्शक की होती है।
भारतीय जनसंघ के समय से ही संघ का राजनीति से रिश्ता इसी तरह से चला आ रहा है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्रे मोदी के बीच किसी तरह का विरोधाभास है। यह याद रखना होगा कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही संघ प्रचारक नानाजी देशमुख को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। जब कभी भाजपा किसी मुश्किल में होती है, यह चर्चा शुरू हो जाती है कि संघ और पार्टी नेतृत्व के बीच खींचतान चल रही है। संघ की रोजाना 60,000 से ज्यादा शाखाएं लगती हैं और अलग-अलग संगठनों के जरिए दो लाख कल्याणकारी योजनाएं चलाई जाती है। संघ को इसके बाद कोई समय नहीं बचता है। उसकी भाजपा को नियंत्रित करने की न तो कई इच्छा है और न ही कोई महत्वाकांक्षा।
